गुरुवार, 20 मई 2010

आज की रात जीना चाहता हूँ





आज
की रात जीना चाहता हूँ

आबे - हयात पीना चाहता हूँ


इससे पहले

कि मैं तुम्हारे हुस्न के झूले में झूल जाऊं


इससे पहले

कि मैं अपने मुर्शिद की दरगाह भूल जाऊं


हटालो निगाह मुझसे.................

ज़ख्म पहले ही बहुत गहरे है ज़िन्दगानी में

आज एक घाव सीना चाहता हूँ

आज की रात जीना चाहता हूँ



सिलवटें बिस्तर की पड़ी रहने दो..........

दुनियादारी की खाट खड़ी रहने दो

क्या ख़ाक मोहब्बत है, क्या राख जवानी है

लम्हों की कहानी है यारा, हर शै यहाँ फ़ानी है


फ़ानी को पाना क्या

फ़ानी को खोना क्या


फ़ानी पर हँसना क्या

फ़ानी पर रोना क्या


जो चढ़के उतरे

वो जाम मयस्सर है


महबूब ने जो भेजा

पैग़ाम मयस्सर है


सुराही, मीना चाहता हूँ

आज की रात जीना चाहता हूँ


आज की रात जीना चाहता हूँ


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7 टिप्‍पणियां:

  1. कैसे तारीफ़ करुँ समझ नहीं आ रहा सर जी..

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  2. रचना बहुत बढ़िया लगी बस फ़ानी का मतलब नहीं समझ आया :-(

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  3. न सुराही, न मीना चाहता हूँ
    आज की रात जीना चाहता हूँ
    आज की रात ही क्यों आप तो हर रात हर दिन जीयें और खूब जीयें .. कामना है

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  4. अलबेला जी जवाब नही आपके..बेहतरीन प्रस्तुति..

    आज की रात जीना चाहता हूँ....बहुत बढ़िया धन्यवाद अलबेला जी

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  5. रात जीने में गुजार दोगे
    तो पिओगे कब
    रात जीना चढ़ने के लिए नहीं
    पीने के लिए बनी है

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