रक्त
में
रंगा
न
हो
आदमी
नंगा
न
हो
प्रार्थना
इतनी
है
रब्बा
अब
कहीं
दंगा
न
हो
साहित्य पथ के सुपरिचित माइल स्टोन
कन्हैया लाल नन्दन नहीं रहे
विनम्र श्रद्धांजलि !
जिसने कहा था
मेरा है लम्बा सफ़र बहुत,
ज़ंजीर खींच कर
वो मुसाफ़िर उतर गया
रिश्ते जब रिसने लगते हैं
तो परिजन पिसने लगते हैं
मत दिखलाना घाव किसी को
लोग नमक घिसने लगते हैं
रात को
कुत्तों ने भौंक - भौंक कर नींद ख़राब कर दी,
इस से भलेमानसों को दुःख हुआ
लेकिन
उस भौंकने से आये हुए चोर भाग गये,
ऐसा दूसरे दिन सुबह पता चला तो सुख हुआ
- विनोबा भावे
जिस प्रकार
हवा
हाथों के इशारे नहीं समझती
आग
आँखों से डरा नहीं करती
पानी
आँचल में क़ैद नहीं हो सकता
अम्बर
किसी एक का हो नहीं सकता
वसुधा
अपनी ममता त्याग नहीं सकती
वो
सिर्फ़ देना जानती है, मांग नहीं सकती
उसी प्रकार
मनुष्य भी
यदि अपने स्वभाव पर अडिग रहता तो बेहतर था
परन्तु इसने निराश किया
अतः परिणाम बहुत ही मारक हो गया
संवर्धन करने वाला ही संहारक हो गया
गन्ध ये बारूद की है शायद
जिसे सहना मेरे बूते से बाहर है
लेकिन मैं सह रहा हूँ
कर कुछ नहीं सकता
इसलिए सिर्फ़ कह रहा हूँ
कि हटादो ये कुहासा
क्योंकि इस सियाह आलम में
महज़ हैवानियत पलती है
बन्दगी को खतरा है
मौत के इस खेल में
ज़िन्दगी को खतरा है
दुनिया पर कब्ज़ा करने की खूंफ़िशां मन्शा वालो !
खबरदार !
तुम ही नहीं, तुम्हारी पुश्तों को भी ले डूबेगी
तुम्हारी खुदगर्ज़ी .........
मैं तो फ़क़त इल्तज़ा कर सकता हूँ
आगे तुम्हारी मर्ज़ी ...............
तन हर्षाया
मन हर्षाया
घर-आँगन हर्षाया है
ऐसा अवसर आया है
एक के घर केशरिया रंग में विघ्नहर्ता की स्थापना
धवल वस्त्र में दूजे के घर संवत्सरी का क्षमापना
तीजे घर में ईद मुबारक, हरियाला क्षीर-खुरमा बना
रंगों की गांठें खुल गईं और गुल ख़ुशी के खिल गये
हम मिले या न मिले, हमारे त्यौहार गले मिल गये
मन्दिर की केसरी
दैरासर की श्वेत
और
मस्जिद की हरी ध्वजा ने दुनिया को दिखलाया है
आज मेरे हिन्दोस्तान ने असली तिरंगा फहराया है
हाँ हाँ
मैंने बेचा है
बेचा है लोहू जिगर का
बेचा है नूर नज़र का
लेकिन
ईमान नहीं बेचा
मैं खाक़ हूँ ...पर पाक हूँ
मेहनतकशी की नाक हूँ
तुम सा नहीं जो वतन को
शान्ति-चैन-ओ-अमन को
माँ भारती के बदन को
पीड़ितजनों के रुदन को
कुर्सी की खातिर
गैरों के हाथ बेच डालूँ
सत्ता के तलवे चाटूं
और चाँदी का जूता खाने के लिए
अपना ज़मीर बेच डालूं
अरे भ्रष्टाचारियों !
मैं बेचता हूँ सिर्फ़ पसीना
वो भी अपना !
और अपना ही वक़्त बेचता हूँ
पेट भराई के लिए
लेकिन इन्सानियत नहीं बेचता
किसी भी क़ीमत पर नहीं बेचता
क्योंकि मैं
मज़दूर हूँ .....लीडर नहीं !
गरीब हूँ ...काफ़िर नहीं !
महक ये कहती है कि गुलात से बनी है
कार्तिक के शबनमी क़तरात से बनी है
नाज़ुकी ऐसी, गोया जज़्बात से बनी है
पर ये सब कयास है
पूरी तरह बकवास है
क्योंकि तज़ुर्बा कहता है कि
दर्दात से बनी है
ज़र्फ़ से, ज़ुर्रत से, ज़ोर के
हालात से बनी है
सुबहा न जिसकी आ सकी,
उस रात से बनी है
ये औरत,
आज की औरत है !
इस्पात से बनी है
इसलिए........................
ज़ुल्म मत कर इस पर
तू इसका एहतराम कर
सारी ख़ुदाई इसकी है,
तू रोज़ इसे सलाम कर
सुप्रसिद्ध कवयित्री, कथाकार, उपन्यासकार एवं अभिनेत्री
डॉ सुधा ओम ढींगरा के जन्म दिवस पर
रचित एक आत्मिक रचनाकरुणा उसका शाश्वत स्वभाव है
पिता के आदर्शों का गहरा प्रभाव है
सम्वेदना सदैव शोणित में बहती है
सचाई उसके सपनों तक में रहती है
जनेता के आँचल का अनमोल मोती है
ऐसी बेटियां अपनी माँ का प्रतिरूप होती हैं
देस की ख़ुशबू बसी है उसके हैप्पी होम में
ओम हैं उसमे बसे और वो बसी है ओम में
सुख - समृद्धि - स्नेह से सुन्दर सजाये रास्ते
माँ से भी कुछ ज़्यादा माँ है वो विभु के वास्ते
मित्रता में वो कृष्ण से कम नहीं है
वो अगर है संग तो कुछ ग़म नहीं है
सुधा है नाम उसका, वो सुधा ही बांटती है
फूल बिखराती है जग में और कांटे छांटती है
शुभ घड़ी फिर उसके आँगन आज आई
जन्मदिन की 'अलबेला' लिखता बधाई
अब बात रहने दो
जज़्बात बहने दो
टूट जाने दो किनारे
छूट जाने दो सहारे
डूब कर जी लें ज़रा सा
ये ज़हर पी लें ज़रा सा
ज़िन्दगी की शाम कर लें
कुछ घड़ी आराम कर लें
फिर नयी ऋतु में मिलेंगे
फिर नये गुलशन खिलेंगे
देह भी अब थक चुकी है
रूह भी तो पक चुकी है
वस्ल का एतमाद रखना
फिर मिलेंगे याद रखना
किसी ख़ुशनुमा मौसम में...........
किसी ख़ुशनुमा आलम में .........
शीराज़ा नाग अभी चारों तरफ़
लगी है आग अभी चारों तरफ़
इसे बुझ जाने दो
इसे बुझ जाने दो
इसे बुझ जाने दो
खरगोश की उछाल
मृग की कुलांच
बाज़ की उड़ान
शावक की दहाड़
शबनम की चादर
गुलाब की महक
पीपल का पावित्र्य
तुलसी का आमृत्य
निम्बू की सनसनाहट
अशोक की लटपटाहट
_______ये सब अब कहाँ सूझते हैं कविता करते समय
अब तो
आदमी का ख़ून
बाज़ार की मंहगाई
खादी का भ्रष्टाचार
संसद का हंगामा
ग्लोबलवार्मिंग
प्रदूषण
और कन्याओं की भ्रूण हत्या ही हावी है मानस पटल पर
दृष्टि जहाँ तक जाती है,
हलाहल है
इसलिए आज कविता नहीं,
कोलाहल है