सोमवार, 6 सितंबर 2010
फिर नयी ऋतु में मिलेंगे
अब बात रहने दो
जज़्बात बहने दो
टूट जाने दो किनारे
छूट जाने दो सहारे
डूब कर जी लें ज़रा सा
ये ज़हर पी लें ज़रा सा
ज़िन्दगी की शाम कर लें
कुछ घड़ी आराम कर लें
फिर नयी ऋतु में मिलेंगे
फिर नये गुलशन खिलेंगे
देह भी अब थक चुकी है
रूह भी तो पक चुकी है
वस्ल का एतमाद रखना
फिर मिलेंगे याद रखना
किसी ख़ुशनुमा मौसम में...........
किसी ख़ुशनुमा आलम में .........
शीराज़ा नाग अभी चारों तरफ़
लगी है आग अभी चारों तरफ़
इसे बुझ जाने दो
इसे बुझ जाने दो
इसे बुझ जाने दो
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एक अलग तरह की सुंदर रचना है ये आपकी कलम से
जवाब देंहटाएंबहुत दिनो बाद एक पूरी कविता पढ्ने को मिली खत्री सहाब, वरना तो दो लायिनो मे ही टरका देते हो, सुन्दर !
जवाब देंहटाएंमित्रवर बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर सुन्दर रचना पढने को मिली है!
जवाब देंहटाएंवस्ल का एतमाद रखना
जवाब देंहटाएंफिर मिलेंगे याद रखना
किसी ख़ुशनुमा मौसम में
किसी ख़ुशनुमा आलम में
बहुत सुन्दर रचना है। बस निश्ब्द हूँ। बधाई।