रविवार, 15 नवंबर 2009
टूटना और बिखरना है बाकी अभी
अक़्स-ए-सावन उभरना है बाकी अभी
रुत का सजना, संवरना है बाकी अभी
उनकी क़ातिल अदाओं का दिल में मेरे
दशना बन के उतरना है बाकी अभी
उनकी गलियों से तो कल गुज़र आए हैं
अपनी हद से गुज़रना है बाकी अभी
उनके आने के झूठे भरम का ऐ दिल !
टूटना और बिखरना है बाकी अभी
जल्दबाजी न कर 'अलबेला' इस कदर
उनका इज़हार करना है बाकी अभी
शनिवार, 14 नवंबर 2009
आइये, हम हास्य और आनन्द की बातें करें
फूल की बातें करें, मकरन्द की बातें करें
गीत की बातें करें और छन्द की बातें करें
द्वेष ने बारूद पर बैठा दिया है आदमी
आइये, हम हास्य और आनन्द की बातें करें
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
क्या ख़बर फिर ऐसा मौसम हो न हो........
आओ
कुछ बात करें......
खामोश रह कर
बाहोश रह कर............
आओ
जाग जाएं कुछ लम्हात के लिए
उठ जाएं सफ़र की रात के लिए
आओ
टटोल लें
गांठें अपनी खोल लें तन्हाई में
डूब जायें चार पल शहनाई में
क्या ख़बर फिर ऐसा मौसम हो न हो........
क्या ख़बर फिर संग तुम-हम हों न हों
आओ
कुछ बात करें......
खामोश रह कर
बाहोश रह कर............
बुधवार, 11 नवंबर 2009
मैं इन्हें बदरंग नहीं होने दूंगा........
मशक्कत
मेरा तेवर है
ज़ुर्रत
मेरा ज़ेवर है
मैं इन्हें बदरंग नहीं होने दूंगा
प्रयास
लाख असफल हों
मेरे
पर
उत्साह भंग नहीं होने दूंगा
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
एक छोरी बावरी सी मेरे गीतों की फ़ैन हो गई
एक गोरी सांवरी सी मेरे गीतों की फ़ैन हो गई
एक छोरी बावरी सी मेरे गीतों की फ़ैन हो गई
पनघट जाती-जाती गाए
जल भर लाती-लाती गाए
आती गाए, जाती गाए
सखियों से बतियाती जाए
पल में सौ बल खाती जाए
गीत वो मेरे गाती जाए
कितनी बेचैन हो गई, कितनी बेचैन हो गई ...
रे मेरे गीतों की ....
उसकी छैल छबीली आँखें
चंचल आँखें , कटीली आँखें
बिजली सी चमकीली आँखें
मोटी-मोटी मछीली आँखें
नीली और नशीली आँखें
आबे-हया से गीली आँखें
तीर्थ उज्जैन हो गईं, तीर्थ उज्जैन हो गईं ...
रे मेरे गीतों की ...
जब जब मेरी याद सताये
उसकी मोहब्बत अश्क़ बहाये
तन घबराये, मन घबराये
उसका अखिल यौवन घबराये
जग-जग सारी रैन बिताये
पल दो पल भी नींद न आये
रातें कुनैन हो गईं, उसकी रातें कुनैन हो गईं
रे मेरे गीतों की ...
सोमवार, 9 नवंबर 2009
तुम्हारी याद आती है, तो लाखों दीप जलते हैं............
पवन जब गुनगुनाती है, तुम्हारी याद आती है
घटा घनघोर छाती है, तुम्हारी याद आती है
बर्क़ जब कड़कडाती हैं, तुम्हारी याद आती है
कि जब बरसात आती है, तुम्हारी याद आती है
तुम्हारी याद आती है, तो लाखों दीप जलते हैं
मेरी चाहत के मधुबन में हज़ारों फूल खिलते हैं
इन आँखों में कई सपने, कई अरमां मचलते हैं
तुम्हारी याद आती है तो तन के तार हिलते हैं
रविवार, 8 नवंबर 2009
इसमें दो राय नहीं है, पिता का कोई पर्याय नहीं है...
जिनसे
यह देह मिली
देह को दुलार मिला
शक्ति मिली,
संवर्धन और विस्तार मिला
जीवन मिला
जीवन के पौधे को
नैतिकता का संचार मिला
श्रमशील
और
स्वाभिमानी रहने का संस्कार मिला
प्यार मिला
दुलार मिला
घर मिला
परिवार मिला
समाज मिला .........संसार मिला
वो सब मिला बिन मांगे,
जो मुझे मांगना भी नहीं आता था
मुझे तब चलना सिखाया
....जब रेंगना भी नहीं आता था
मैं नहीं भूला कुछ भी
न आपको
न आपकी सौगात को
न उस काली रात को
जब आप चिरनिद्रा में सो गए
जिस का रात-दिन स्मरण करते थे
उसी परमपिता के हो गये
छोड़ गये
तोड़ गये
सब बन्धन घर-परिवार के
देह के और दैहीय संसार के
काश! आज आप होते
तो मैं इतना तन्हा न होता ..............
सच है
पूर्ण सच है ....
इसमें कोई भी दो राय नहीं है
पिता का कोई पर्याय नहीं है
पिता का कोई पर्याय नहीं है
मैं नहीं जानता
पुनर्जन्म होगा या नहीं
हुआ भी तो
मानवदेह मिलेगा या नहीं
परन्तु
प्रार्थना नित यही करता हूँ
एक बार नहीं,
बार बार ऐसा हो, हर बार ऐसा हो
मैं रहूँ पुत्र और
आप ! हाँ .....आप ही मेरे पिता हो
आप ही आराध्य मेरे
आप ही हैं देवता
कृतज्ञता !
कृतज्ञता !
कृतज्ञता !
-अलबेला खत्री
शनिवार, 7 नवंबर 2009
काश ! मैं भी दीया होता..आरती का नहीं तो अर्थी का सही..
दीया
आरती का हो या अर्थी का
दोनों
अन्धेरा छाँटते हैं
उजाला बाँटते हैं
लेकिन विनम्रता देखिये दोनों की
न तो कोई किसी पे हँसता है
न ही कोई व्यंग्य कसता है
न कोई वाद करते हैं, न ही विवाद करते हैं
दीये बस रौशनी का जहाँ आबाद करते हैं
इनमें शायद हीरो बनने का कोई
झगड़ा नहीं है
इसीलिए दीयागीरी में TRP का
लफड़ा नहीं है
बस काम करते हैं अपना अपना
आखरी दम तक
खपा देते हैं ख़ुद को............
बे-गरज़
ये बेजान दीये
कभी
आरजू - ए - इनाम नहीं करते
जबकि हम जानदार
आलम फ़ाज़ल
इन्सान
बिना गरज़ के
कभी कोई भी काम नहीं करते
__________कदाचित इसीलिए
हमें बार बार मरने को
बार बार ज़िन्दा होना पड़ता है
छोटी छोटी दुनियावी बातों पर
बारहा शर्मिन्दा होना पड़ता है
मुझे भी भ्रम है कि मैं
अपने फ़न-ओ-हुनर से
उजाला बांटता हूँ
जबकि सच तो ये है कि
अपने वजूद के लिए
औरों को काटता हूँ
छि: शर्म आती है अपनी ही सोच पर
इन्सानियत को खा गया हूँ नोच कर
काश ! मैं भी दीया होता......
आरती का न सही
अर्थी का ही सही.........................
- अलबेला खत्री
अपनी लाज बचाने के लिये आत्मघात कर रही हैं
( सूरत में घटी एक शर्मनाक घटना पर )
पत्तियाँ
गुलाब
की
कुछ
यूँ
झर
रही
हैं
मानो
कमसिन
किशोरियां
अपनी
लाज
बचाने
के
लिए
आत्मघात
कर
रही
हैं
-अलबेला खत्री
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
रात बहुत लम्बी है लेकिन कट ही जायेगी .........

सन्नाटे के सीने में तूफ़ान छिपा है
दर्द के दिल में खुशियों का सामान छिपा है
अंधियारे के आँचल से सूरज निकलेगा
काँटों के साए में फिर से फूल खिलेगा
रात बहुत लम्बी है लेकिन कट ही जायेगी
फिर सुबह आएगी........
फिर सुबह आएगी........
अलबेला खत्री
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
कौन ओस ? कौन कादा ?
आंगन की
तुलसी के
मुलायम-मुलायम पातों पर
शयनित
शीतल-सौम्य ओस कणिकाओं को
सड़क किनारे
गलीज़ गड्ढे में सड़ रही
कळकळे कादे की
कसैली और कुरंगी जल-बून्दों पर
व्यंग्यात्मक हँसी हँसते देख
जब मेघ का
वाष्पोत्सर्जित मन भर आया
तो सखा सूरज ने उसे समझाया
भाया,
धीरज रख,
बिफर मत
क्योंकि इन ओस कणिकाओं को
अभी भान नहीं है
इस सचाई का ज्ञान नहीं है
कि कादा स्वभाव से कादा नहीं था
और कादा होने का
उसका इरादा नहीं था
प्रारब्ध की ब्रह्मलिपि
यदि कादे में छिपा जल
पढ़ गया होता
तो वह भी
किसी तुलसी के पातों पर
चढ़ गया होता
ख़ैर..
इस दृश्य को भी बदलना है,
सृष्टि का चक्र अभी चलना है
मेरी लावा सी लपलपाती कलाओं से
झरती आग
शोष लेगी शीघ्र ही -
तुलसी को भी,
कादे को भी
चूंकि दोनों में से
किसी के पास नहीं है अमरपट्टा
इसलिए
दोनों को ही
त्याजनी होगी धरती
और मेरे ताप के परों पर बैठ कर
जब दोनों ही
निर्वसन होकर पहुंचेंगे तेरे पास
तो तू स्वयं देख लेना-
कोई फ़र्क नहीं होगा दोनों में
बल्कि
तू पहचान भी न पाएगा
कौन ओस ?
कौन कादा ?
- अलबेला खत्री
तुलसी के
मुलायम-मुलायम पातों पर
शयनित
शीतल-सौम्य ओस कणिकाओं को
सड़क किनारे
गलीज़ गड्ढे में सड़ रही
कळकळे कादे की
कसैली और कुरंगी जल-बून्दों पर
व्यंग्यात्मक हँसी हँसते देख
जब मेघ का
वाष्पोत्सर्जित मन भर आया
तो सखा सूरज ने उसे समझाया
भाया,
धीरज रख,
बिफर मत
क्योंकि इन ओस कणिकाओं को
अभी भान नहीं है
इस सचाई का ज्ञान नहीं है
कि कादा स्वभाव से कादा नहीं था
और कादा होने का
उसका इरादा नहीं था
प्रारब्ध की ब्रह्मलिपि
यदि कादे में छिपा जल
पढ़ गया होता
तो वह भी
किसी तुलसी के पातों पर
चढ़ गया होता
ख़ैर..
इस दृश्य को भी बदलना है,
सृष्टि का चक्र अभी चलना है
मेरी लावा सी लपलपाती कलाओं से
झरती आग
शोष लेगी शीघ्र ही -
तुलसी को भी,
कादे को भी
चूंकि दोनों में से
किसी के पास नहीं है अमरपट्टा
इसलिए
दोनों को ही
त्याजनी होगी धरती
और मेरे ताप के परों पर बैठ कर
जब दोनों ही
निर्वसन होकर पहुंचेंगे तेरे पास
तो तू स्वयं देख लेना-
कोई फ़र्क नहीं होगा दोनों में
बल्कि
तू पहचान भी न पाएगा
कौन ओस ?
कौन कादा ?
- अलबेला खत्री
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