रविवार, 19 सितंबर 2010
यदि अपने स्वभाव पर अडिग रहता तो बेहतर था
जिस प्रकार
हवा
हाथों के इशारे नहीं समझती
आग
आँखों से डरा नहीं करती
पानी
आँचल में क़ैद नहीं हो सकता
अम्बर
किसी एक का हो नहीं सकता
वसुधा
अपनी ममता त्याग नहीं सकती
वो
सिर्फ़ देना जानती है, मांग नहीं सकती
उसी प्रकार
मनुष्य भी
यदि अपने स्वभाव पर अडिग रहता तो बेहतर था
परन्तु इसने निराश किया
अतः परिणाम बहुत ही मारक हो गया
संवर्धन करने वाला ही संहारक हो गया
Labels:
कविता काव्यरचना,
मनुष्य,
ममता,
मारक,
संहारक,
हास्यकवि अलबेला खत्री
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
आज का इन्सान अपनी ही मजबूरियों में खो गया है,
जवाब देंहटाएंभाग-दौड़ भरी जिन्दगी में इंसान ही लुप्त हो गया है
अच्छी पंक्तिया ........
इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
(आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html
२४ करैट शुद्ध बात कही खत्री सहाब !
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही बात..खालिस यथार्थ|
जवाब देंहटाएंब्रह्माण्ड
sahee baat| dhanyavaad|
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा है...बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंhttp://veenakesur.blogspot.com/
यदि अपने स्वभाव पर अडिग रहता तो बेहतर था
जवाब देंहटाएंअफ़सोस हम यही तो नहीं कर पाते !!
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
प्राइमरी का
मास्टर
फतेहपुर
बहुत सुन्दर सन्देश दिया है आपने अलबेला जी!
जवाब देंहटाएंवायु, अग्नि, जल, व्योम, वसुन्धरा परमात्मा की प्रकृति है, परमात्मा उन्हें अडिग रखते हैं इसलिए अडिग रहती हैं; किन्तु मनुष्य की अपनी प्रकृति होती है यदि मनुष्य के भीतर अपनी प्रकृति को अडिग रखने का सामर्थ्य रखने वाली आत्मा हो तो वह भी उन्हें अडिग रख सकता है।
उसी प्रकार
जवाब देंहटाएंमनुष्य भी
यदि अपने स्वभाव पर अडिग रहता तो बेहतर था
परन्तु इसने निराश किया
अतः परिणाम बहुत ही मारक हो गया
संवर्धन करने वाला ही संहारक हो गया
एकदम सटीक !!
अरे वाह!.... इतना ज्ञान.....
जवाब देंहटाएं